ज़िंदगी – आखिरी पन्ना

लब अब मुस्कुराये कि कब मुस्कुराये
कि जमाना हो गए हमें मुस्कुराये,
नफरतों के बीज़ इस कदर बो दिए गए
कि ना कभी तुम मुस्कुराये ना हम मुस्कुराये ।।

बिरह की आग में अकेला ही जल रहा हूँ,
संग तेरे गुजरे वो लम्हें लिख रहा हूँ,
महफ़िल सजीं हैं इश्क वालों की,
जहाँ मैं अपनी दास्तां मोहब्बत कह रहा हूँ ।।

 

आओं याद शहर में चलते हैं
फिर बीते हुए पल को जीते हैं,
वक्त के साथ चल कर सब छूट गए
जो कभी आपने थे वो कहाँ गए,
जो सपने देखे थे वो टूट गए
अपने भी अपनों से रूठ गए,
अब लौट चले उन लम्हों में
जहाँ खुशियों के मेले लगते थे ।।
आवो याद सहर चलते हैं।।

8 विचार “ज़िंदगी – आखिरी पन्ना&rdquo पर;

        1. प्यार अगर समंदर सा गहरा होता
          तो उसकी गहराई नापना मुश्किल होता
          पर आज कल लोग उसका मानक में नाप लेते हैं
          कि उस दिन आप का प्यार कम था
          या तब आपने हमें नही याद किया
          इसलिए केवल अहसास ही हैं जो गहरा हैं
          प्यार तो भाँप की माफ़िक उड़ जाता हैं

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